-जनकवि स्व.कोदूराम "दलित"
हमर देश - मा ये दारी , बाढ़िन हें अड़बड़ मनखे
कोन्हों किसिम पेट-पाले बर हे , हमला सब झन के
बात करौ बिलकुल कमती, अउ काम करो अब ज्यादा
अपन देश के उन्नति- मा , चिटको डारौ झन बाधा
खाये के सब चीज खूब , अब पैदा करना परिही
तभे भुखमरी के भारी , संकट हर जल्दी टरिही
करत हवयं बपुरा किसान - मन ,मिल के खेती-बारी
पैदा होये लगिस गजब अब , स्यारी अउर उन्हारी
पर अतके-च अनाज सबो , बर पूर नी सकय भाई
इही पाय के पेट भरे बर , होवत हे कठिनाई
खाये बर अब दूसर चीज , घलो उपजाना चाही
जेला जऊन सुहाय , तऊन चीज -ला खाना चाही
बाग - बगीचा मा हम सुग्घर , फल के पेड़ लगाई
बारी - बखरी मा भाजी - तरकारी बोवत जाई
तरिया - मा , डबरा- मा , कतला - रोही मछरी बोई
एक बछर - मा एक - एक , दस-दस रूपया के होही
पालो गाय , भइंसा अउ छेरी , दही - दूध पाये बर
पोसीं कुकरी - बदक , गार बेंचे बर अउ खाये बर
गाय, भइंस ,कुकरी पाले बर ,मिलथे ऋण सरकारी
ये धन्धा - मा कतको झन के , दुरिहाइस बेकारी
तुम पशु-पालन ,मुर्गी - पालन केंद्र मनन मा जावौ
इन्ह ला पाले - पोसे के , सब बात सीख के आवौ
कांदी , भूँसा , दाना , खरी , बिनौला खूब खवावौ
अपन गाय - गोरू मन -ला,नीरोग बलिष्ठ बनावौ
रखो बने कोठा - मा, मँगसा - भुसड़ी सबो भगावौ
तइहा जुग-कस दूध- घीव के नदिया आज बोहावौ
देबी के पूजा करथौ , 'माता' खातिर मनमानी
तजो अंध बिस्वास , करावत जाव दवाई - पानी
रोगी होते साठ , मवेशी - अस्पताल ले जावौ
खूरा - चपका , माता के 'टीका' उन्ह ला लगवावौ
कुकरा - कुकरी सब्बो के , उहँचे इलाज हर होथै
जो इलाज करवाय नहीं , मुड़ धर के वो रोथै
पालिस 'गऊ' गोपाल-कृष्ण हर दही-दूध तब खाइस
अउर दूध छेरी के , 'बापू-ला' बलवान बनाइस
बने किसिम के पशु - पंछी अब, खूब पालना चाही
बढ़िही उत्पादन हर ,खाद्य-समस्या हल हो जाही
जुरमिल के सब रहो प्रेम से , खूब कमावौ खावौ
अउ सुराज के पावन गंगा , घर - घर मा पहुँचावौ
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हमर देश - मा ये दारी , बाढ़िन हें अड़बड़ मनखे
कोन्हों किसिम पेट-पाले बर हे , हमला सब झन के
बात करौ बिलकुल कमती, अउ काम करो अब ज्यादा
अपन देश के उन्नति- मा , चिटको डारौ झन बाधा
खाये के सब चीज खूब , अब पैदा करना परिही
तभे भुखमरी के भारी , संकट हर जल्दी टरिही
करत हवयं बपुरा किसान - मन ,मिल के खेती-बारी
पैदा होये लगिस गजब अब , स्यारी अउर उन्हारी
पर अतके-च अनाज सबो , बर पूर नी सकय भाई
इही पाय के पेट भरे बर , होवत हे कठिनाई
खाये बर अब दूसर चीज , घलो उपजाना चाही
जेला जऊन सुहाय , तऊन चीज -ला खाना चाही
बाग - बगीचा मा हम सुग्घर , फल के पेड़ लगाई
बारी - बखरी मा भाजी - तरकारी बोवत जाई
तरिया - मा , डबरा- मा , कतला - रोही मछरी बोई
एक बछर - मा एक - एक , दस-दस रूपया के होही
पालो गाय , भइंसा अउ छेरी , दही - दूध पाये बर
पोसीं कुकरी - बदक , गार बेंचे बर अउ खाये बर
गाय, भइंस ,कुकरी पाले बर ,मिलथे ऋण सरकारी
ये धन्धा - मा कतको झन के , दुरिहाइस बेकारी
तुम पशु-पालन ,मुर्गी - पालन केंद्र मनन मा जावौ
इन्ह ला पाले - पोसे के , सब बात सीख के आवौ
कांदी , भूँसा , दाना , खरी , बिनौला खूब खवावौ
अपन गाय - गोरू मन -ला,नीरोग बलिष्ठ बनावौ
रखो बने कोठा - मा, मँगसा - भुसड़ी सबो भगावौ
तइहा जुग-कस दूध- घीव के नदिया आज बोहावौ
देबी के पूजा करथौ , 'माता' खातिर मनमानी
तजो अंध बिस्वास , करावत जाव दवाई - पानी
रोगी होते साठ , मवेशी - अस्पताल ले जावौ
खूरा - चपका , माता के 'टीका' उन्ह ला लगवावौ
कुकरा - कुकरी सब्बो के , उहँचे इलाज हर होथै
जो इलाज करवाय नहीं , मुड़ धर के वो रोथै
पालिस 'गऊ' गोपाल-कृष्ण हर दही-दूध तब खाइस
अउर दूध छेरी के , 'बापू-ला' बलवान बनाइस
बने किसिम के पशु - पंछी अब, खूब पालना चाही
बढ़िही उत्पादन हर ,खाद्य-समस्या हल हो जाही
जुरमिल के सब रहो प्रेम से , खूब कमावौ खावौ
अउ सुराज के पावन गंगा , घर - घर मा पहुँचावौ
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सुकवि जनकवि स्व.कोदूराम "दलित" जी की कविता यथार्थपरक सुन्दर सार्थक है. इस महत्वपूर्ण प्रस्तुति के लिए आपको हार्दिक बधाई।
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