Tuesday, May 24, 2011

छत्तीसगढी मधुर व्यंग्य - कनवा समधी

-जनकवि स्व.कोदूराम”दलित”

मैं  अउ  मोर  माहुद वाला  कनवा समधी
किंजरे बर निकले रहेन आज हम बड़े फजर
काबर  कि  समधी  हर  हमार  एक्कोदारी
देखे  नइ रहिस कभू  बपुरा हर हमर सहर.

पहिली  जा के  दुनों  झन  बुद्धू होटल मा
झड़्केन चहा , भजिया-वजिया सिगरेट पान
तब  फेर उहाँ ले असके किंजरे  हन दुन्नों
उत्ताधुर्रा   सब्बो  पारा   , सब्बो  दुकान.

लख  हमर सहर के  सोभा साफ-  सफाई ला
अकचका  गइस  समधी  हमार   एक्के दारी
अउ बोलिस कि “गउकी समधी मैं बाप जनम
नई  देखे  हौं  गा  गाँव कभू  अतका  भारी.

ये  नल-बिजली, होटल - हटरी सुग्घर मकान
टेसन,  बंगला,  कचहरी,  सिनेमा  नल-टाँकी
मठ – मंदिर,  भीड़- भड़क्का  मोटर-वोटर के
सब  देख – देख  के चकरागे  दुन्नों  आँखी.

ये  लाल बम्ब  अंधेर  अबीर-गुलाल  असन
कइसन  के  धुर्रा  उड़त  हवय  चारों कोती
खाली  आधा  घंटा  के  किंजरे –मा  समधी
सुंदर  बिन  पइसा के  रंग गे  कुरता धोती.

भन-भन भन-भन भिनक-भिनक के माँछी मन
काकर गुन ला निच्चट  जुर मिल के गावत हें
अउ  खोर - खोर, रसदा - रसदा मा  टाँका के
पावन  जल  अड़बड़  काबर  आज बोहावत हे.




रसदा  के  दुनों  कोती  सूरा  मन अघात
गोबर  साहीं  कइसन  के   पाटे  डारत हे
जम्मो  नाली के  महर-महर  मँहकाई  मा
कनवज के अत्तर हर घलाय झक मारत हे.

अउ  नवा  बगीचा  के  घलाय का कहना हे
नंदन  बन  हर  असनेच  दिखत होही सुंदर
बुढ्वा आमा मा  बइठ – बइठ के कौवा  मन
कोयली जस बड़ निक राग सुनावत हे मनहर.

उज्जर-उज्जर  पाँखी  वाला  अमली रुख मा
ये किरिर – किरिर कोकड़ा कतेक नरियावत हें
का चीज ? पटा पट गिरा गिरा के भुइयाँ ला
चितकबरी  करके  अड़बड़  सहज  उड़ावत हें.

जोड़ी-जोड़ी  चेलिक मोटियारी  घुमत  हवयँ
कस समधी ! आज सहर मा कुछु होवइया हे
मोटर मा  पानी  भर  के सड़क भिगोंवत हें
का ! कोन्हों  बड़का  नेता  आज अवइया हे.

सुनके  कनवा  समधी  के गोठ हाँसी आइस
अउ जानेंव – कि  समधी  हे  पूरा  अग्यानी
तब  ओला  समझा  के  ये बात बताएँव मैं
आये  हे  आज  इहाँ  समधी !  बसंत रानी.

हम किंजर-किंजर के थके हवन जी दुन्नों झन
अब  घर  जाईं ,  सुस्ताई  अउ  खाईं  बासी
समधी   के  भकलापन   के  सुरता   आथे
तो  आथे  मोला  ओतकेच  बेर  गजब हाँसी.



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