Wednesday, May 22, 2019

"चुनावी जंग"

जनकवि कोदूराम "दलित"जी द्वारा साठ के दशक में रची गई हिन्दी कविता, आज भी प्रासंगिक है -

"चुनावी जंग"

(काल्पनिक - कल्पनापुर नगर पालिका चुनाव की एक झाँकी)

अब का चुनाव जंग था। इसका अजीब ढंग था।।
विरोधियों की पारटी। हो एक जंग में डटी।।

बना संयुक्त मोरचा। रण चौक चौक में मचा।।
जूझे कई महारथी। उद्दंड लट्ठ भारती।।

चुनावी चक्र चल गया। सारा नगर दहल गया।।
व्याख्यानबाजियाँ चलीं। वो जालसाजियाँ चलीं।।

होतीं सभाएँ शाम को। एकत्र कर तमाम को।।
कुछ ताल ठोंक बैठते। मूँछें गजब की ऐंठते।।

तिसमारखाँ बड़े बड़े। हो रंगमंच पर खड़े।।
थे सुबह शाम रेंकते। कीचड़ किसी पे फेंकते।।

कुछ वीर बौखला गए। निज रूप वे दिखा गए।।
पथ-भ्रष्ट हो चुके कई। सद्बुद्धि खो चुके कई।।

जो शब्द बाण छूटते। तो मौज हम थे लूटते।।
जो दीं किसी ने गालियाँ। तो पीटीं हमने तालियाँ।।

दो वीर आ के चल दिए। छाती पे मूँग दल दिए।।
कुछ मतलबी ही यार थे। रंगे हुए सियार थे।।

उनमें से एक वीर था। पद के लिए अधीर था।।
लम्पट लबार लालची। ले संग में मशालची।।

गली-गली में घूमता। पग व्होटरों के चूमता।।
इस बार फिर रहम करो। लेकिन दया न कम करो।।

इस भाँति जंग बढ़ गई। रणचंडी सर पे चढ़ गई।।
दो बैल जब बिगड़ गए। आफत में लाले पड़ गए।।

पीले सफेद झड़ गए। नीले हरे उखड़ गए।।
यूँ श्याम साँझ आ गई। रणचंडी शांति पा गई।।

चुनाव खत्म हो गया। लुटिया कई डुबो गया।।
पतंग किसी की कट गई। बाजी विकट उलट गई।।

किसी की पोल खुल गई। इज्जत तमाम धुल गई।।
मुँह की कोई खा गया। तो कोई चरमरा गया।।

पैसा भी गया गाँठ का। घर का रहा न घाट का।।
जय जयति नगर पालिके। पद लोलुपों की छालिके।।

देखा गया सदा यही। तू नेक दलों की रही।।
नया शरीर पा गई। नयी बहार आ गई।।

अब कल्पना नगर बढ़े। उत्कर्ष श्रृंग पर चढ़े।।
आहत न होवे भावना। हो पूर्ण सबकी कामना।।

रचयिता - जनकवि कोदूराम "दलित"
             छत्तीसगढ़