-जनकवि स्व.कोदूराम "दलित"
बड़ सुग्घर बनगे हमर गाँव , अब लागे लगिस स्वर्ग साहीं
येकर महिमा ला का बतावँ , बड़ सुग्घर बनगे हमर गाँव.
करके जुरमिल के काम धाम ,सब झन मन बनगे सुखी इहाँ
कटगे जम्मो झन के कलेश , अब कोन्हों नइये दुखी इहाँ.
सब झन के सुधरिस चाल चलन अउ सुधरिस सब झन के सुभाव.................
अब्बड़ अन उपजारे लागिन ,कर सहकारी खेती बारी
अब होवय अन के बँटवारा ,ये मा हे लाभ भइस भारी.
अब सब्बो झन मन बनगे मंडल अउ सब्बो झन मन बनिन साव..................
दुकान लगाइस सहकारी ,बेंचयँ उहँचे सब अपन माल
अउ उहँचे जम्मो जिनिस लेयँ ,ठग-जग के अब नइ गलय दाल.
अब होथय वाजिब नाप जोख अउ होथय वाजिब भाव ताव ...........................
श्रमदान करिन कोड़िन तरिया अउ कोड़िन सुंदर कुँवा एक
सिरजाइन स्कूल – अस्पताल , सहरावयँ सब झन देख-देख.
आमा , अमली ,बर, पीपर के , रुखरई लगाइन ठाँव – ठाँव..............................
सब झन मन चरखा चलायँ अउ कपड़ा पहिनयँ खादी के
सब करयँ ग्राम-उद्योग खूब , रसदा मँ रेंगय गाँधी के.
इन अपन गाँव पनपाये बर , सुस्ताये के नइ लेयँ नाव...................................
सब्बो झन मन पढ़ लिख डारिन ,सब्बो बनगें चतुरा-सियान
अब अँगठा नहीं दँतायँ कहूँ ,आइस अतेक सब मा गियान.
मुख देखँय नहीं कछेरी के , पंचाइत मा टोरयँ नियाव......................................
नइ माने अब जादू-टोना , नइ माने मढ़ी – मसान – भूत
नइ छीयय कभू नशा-पानी , नइ मानयँ ककरो छुआछूत.
तज दिहिन अंध विश्वास सबो ,तज देइन दुविधा,भेद-भाव...............................
निच्चट चिक्कन-चातर राखयँ ,सब घर-दुवार अउ गली खोर
सबके घर बनगें हवादार , सबके घर मा आथय अँजोर
नइ हमर गाँव मा अब कोन्हों ,बीमारी के जम सकय पाँव....................................
घर-घर पालिन हें गाय-भइँस ,झड़कयँ कसके सब दही-दूध
फटकार ददरिया करयँ मौज अउ करयँ गजब के नाच-कूद.
सब्बो झन हें भोला शंकर ,नइ जानयँ चिटको पेंच – दाँव....................................
बस इही किसम भारत भर के, सुग्घर बन जावयँ गाँव-गाँव
अउ सबो योजना मन हमार , पूरा हो जावयँ ठाँव – ठाँव.
जन सुखी होयँ, मत रहयँ इहाँ, ये हाँव – हाँव अउ खाँव–खाँव................................
nice thoughtful poem
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति.
ReplyDeleteभाषा ज्ञान बढ़ाना पड़ेगा.
अभी तो हिन्दी भी ठीक से नहीं आती.
आभार.